पटना 02 नवम्बर 2024

हर साल भाई दूज के दिन चित्रगुप्त की पूजा का विधान है। इस दिन चित्रगुप्त के साथ कलम, दवात और बहीखाता की पूजा की जाती है। कहते हैं कि ऐसा करने सुख-समृद्धि, बुद्धि, विद्या और तरक्की का आशीर्वाद प्राप्त होता है। भगवान चित्रगुप्त व्यक्ति के कर्मों का लेखा-जोखा लिखते हैं।

भगवान चित्रगुप्त को देवताओं के लेखपाल और यम के सहायक के रूप में पूजा जाता है. चित्रगुप्त जी का कार्य मनुष्य के अच्छे और बुरे कर्मों का लेखा-जोखा रखना है. माना जाता है कि मनुष्य को उनके कर्मों के अनुसार ही फल मिलता है। .धार्मिक मान्यता के अनुसार, चित्रगुप्त जी का पूजन करने से बुद्धि, वाणी और लेखनी का आशीर्वाद प्राप्त होता है।व्यापारी वर्ग के लोगों के लिए यह दिन विशेष होता है क्योंकि इस दिन नए बहीखातों पर ‘श्री’ लिखकर कार्य आरंभ किया जाता है। इसके अतिरिक्त सभी आय-व्यय का ब्योरा चित्रगुप्त जी के सामने रखा जाता है।

कायस्थ समाज में चित्रगुप्त को आराध्य देव के रूप में पूजा जाता है। उनके ईष्ट देवता ही चित्रगुप्त जी हैं। इस दिन कायस्थ लोग चित्रगुप्त जयंती के रूप में मनाते हैं व लेखनी-दवात का पूजन करते हैं। इसी के साथ लोग इस दिन लेखनी से संबंधित कार्यों को भी बंद रखते हैं। चित्रगुप्त पूजन को दवात पूजन के नाम से भी जाना जाता है।
भगवान चित्रगुप्त परमपिता ब्रह्मा जी के अंश से उत्पन्न हुए हैं और यमराज के सहयोगी हैं। इनकी कथा इस प्रकार है कि सृष्टि के निर्माण के उद्देश्य से जब भगवान विष्णु ने अपनी योग माया से सृष्टि की कल्पना की तो उनकी नाभि से एक कमल निकला जिस पर एक पुरूष आसीन था चुंकि इनकी उत्पत्ति ब्रह्माण्ड की रचना और सृष्टि के निर्माण के उद्देश्य से हुआ था अत: ये ब्रह्मा कहलाये। इन्होंने सृष्ट की रचना के क्रम में देव-असुर, गंधर्व, अप्सरा, स्त्री-पुरूष पशु-पक्षी को जन्म दिया। इसी क्रम में यमराज का भी जन्म हुआ जिन्हें धर्मराज की संज्ञा प्राप्त हुई क्योंकि धर्मानुसार उन्हें जीवों को सजा देने का कार्य प्राप्त हुआ था। धर्मराज ने जब एक योग्य सहयोगी की मांग ब्रह्मा जी से की तो ब्रह्मा जी ध्यानलीन हो गये और एक हजार वर्ष की तपस्या के बाद एक पुरूष उत्पन्न हुआ। इस पुरूष का जन्म ब्रह्मा जी की काया से हुआ था अत: ये कायस्थ कहलाये और इनका नाम चित्रगुप्त पड़ा।
भगवान चित्रगुप्त जी के हाथों में कर्म की किताब, कलम, दवात और करवाल है। ये कुशल लेखक हैं और इनकी लेखनी से जीवों को उनके कर्मों के अनुसार न्याय मिलती है। कार्तिक शुक्ल द्वितीया तिथि को भगवान चित्रगुप्त की पूजा का विधान है। इस दिन भगवान चित्रगुप्त और यमराज की मूर्ति स्थापित करके अथवा उनकी तस्वीर रखकर श्रद्धा पूर्वक सभी प्रकार से फूल, अक्षत, कुमकुम, सिन्दूर एवं भांति भांति के पकवान, मिष्टान एवं नैवेद्य सहित इनकी पूजा करें। और फिर जाने अनजाने हुए अपराधों के लिए इनसे क्षमा याचना करें। यमराज और चित्रगुप्त की पूजा एवं उनसे अपने बुरे कर्मों के लिए क्षमा मांगने से नरक का फल भोगना नहीं पड़ता है।
भगवान चित्रगुप्त की पूजा विधि
एक चौकी पर चित्रगुप्त महाराज की तस्वीर स्थापित करें।
इसके बाद उन्हें रोली, अक्षत्, फूल, मिठाई, फल आदि अर्पित करें।
इसके बाद अपने पुराने सभी काम का ब्योरा चित्रगुप्त जी के सामने रखें ।
इसके बाद एक सफेद कागज पर श्री गणेशाय नम: और 11 बार ऊं चित्रगुप्ताय नमः लिखें।
अब भगवान चित्रगुप्त से विद्या, बुद्धि तथा जीवन में तरक्की की प्रार्थना करें।
चित्रगुप्त पूजन में शुभ मुहूर्त में नए बहीखातों की पूजा करें।

इस संदर्भ में एक कथा का यहां उल्लेखनीय है।
सौराष्ट्र में एक राजा हुए जिनका नाम सौदास था। राजा अधर्मी और पाप कर्म करने वाला था। इस राजा ने कभी को पुण्य का काम नहीं किया था। एक बार शिकार खेलते समय जंगल में भटक गया। वहां उन्हें एक ब्रह्मण दिखा जो पूजा कर रहे थे। राजा उत्सुकतावश ब्रह्ममण के समीप गया और उनसे पूछा कि यहां आप किनकी पूजा कर रहे हैं। ब्रह्मण ने कहा आज कार्तिक शुक्ल द्वितीया है इस दिन मैं यमराज और चित्रगुप्त महाराज की पूजा कर रहा हूं। इनकी पूजा नरक से मुक्ति प्रदान करने वाली है। राजा ने तब पूजा का विधान पूछकर वहीं चित्रगुप्त और यमराज की पूजा की।

काल की गति से एक दिन यमदूत राजा के प्राण लेने आ गये। दूत राजा की आत्मा को जंजीरों में बांधकर घसीटते हुए ले गये। लहुलुहान राजा यमराज के दरबार में जब पहुंचा तब चित्रगुप्त ने राजा के कर्मों की पुस्तिका खोली और कहा कि हे यमराज यूं तो यह राजा बड़ा ही पापी है इसने सदा पाप कर्म ही किए हैं परंतु इसने कार्तिक शुक्ल द्वितीया तिथि को हमारा और आपका व्रत पूजन किया है अत: इसके पाप कट गये हैं और अब इसे धर्मानुसार नरक नहीं भेजा जा सकता। इस प्रकार राजा को नरक से मुक्ति मिल गयी।

चित्रगुप्त पूजा मन्त्र
मसिभाजनसंयुक्तं ध्यायेत्तं च महाबलम्। लेखिनीपट्टिकाहस्तं चित्रगुप्तं नमाम्यहम्।।

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