आलेख : प्रतिष्ठाचार्य विजय कुमार जैन, हस्तिनापुर
(मंत्री-कुण्डलपुर दि. जैन समिति)

दशलक्षण महापर्व वर्ष में तीन बार आता है लेकिन भादों के महीने में इस पर्व का विशेष महत्व है। इन दिनों में जैन श्रद्धालुगण दस दिनों में पूजन-पाठ, जप-तप, संयम, व्रत, उपवास करके आत्मा को परमात्मा बनाने का परम पुरूषार्थ करते हैं। इन दिनों मे कुछ व्यक्ति दशों दिन निर्जल उपवास रखकर आत्मा की साधना करते हैं एवं यथा शक्ति हर व्यक्ति बाल से लेकर वृद्ध तक इन दस दिनों में धार्मिक क्रियाओं में संलग्न रहता है। जिस प्रकार से हर वस्तु का एक सीजन आता है, वैसे ही भादों के महीने में सबसे ज्यादा व्रत एवं उपवास किया जाता है। इसे पुण्य संचय का सीजन कह सकते हैं। आचार्यों ने धर्म को दसरूपों में विभक्त किया है। जो कि उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन, ब्रह्मचर्य हैं। क्षमा से प्रारंभ होने वाला धर्म अंत में क्षमावाणी महापर्व मनाकर सम्पन्न किया जाता है। जिससे कि वर्ष भर में परस्पर में हुए त्रुटि एवं वैरभाव को क्षमा मांगकर के एक-दूसरे के प्रति वात्सल्य का भाव रखते हैं। जो कि निम्न प्रकार से पूर्वाचार्यों ने बताये हैं-
उत्तम छिमा मारदव आरजव भाव हैं। सत्य शौच संयम तप त्याग उपाव हैं।।
आकिंचन ब्रह्मचर्य धरम दश सार हैं। चहुँगति-दुखतैं काढ़ि मुकति करतार हैं।।

इन पंक्तियों का अर्थ उत्तम-क्षमा-मादर्व-आर्जव यह भाव हेैं, सत्य-शौच-संयम-तप-त्याग ये उपाय हैं और सार रूप उत्तम आकिंचन्य व उत्तम ब्रह्मचर्य यह इन धर्मों का साररूप है। व्यक्ति जीवन में यदि इन दस धर्मों के पथ पर चलता हुआ अपने जीवन को व्यतीत करे तो समाज को व स्वयं को उन्नति के पथ पर ले जा सकता है। आईये हम दस धर्मों को जानेें-

उत्तम क्षमा धर्म

उत्तम छिमा गहो रे भाई, इह भव जस, पर भव सुखदाई।
गाली सुनि मन खेद न आनो, गुनको औगुन कहै अयानो।।

क्षमा-वीरस्य-भूषणम् अर्थात् क्षमा वीरों का अभूषण है। कायर व्यक्ति क्षमा नहीं कर सकता है। क्षमा धर्म जीवन का श्रृंगार है। यदि व्यक्ति क्षमाशील नहीं है तो वह अप्रियता को सदैव प्राप्त होता है। उस व्यक्ति को समाज में कोई भी पसंद नहीं करता है एवं पास में नहीं बिठालता है सदैव उसका तिरस्कार किया जाता है। इसलिए आचार्यों ने क्षमा को सर्व श्रेष्ठ धर्म बताया है। सबसे क्षमाशील होने की धरती को उपमा दी गई है। क्योंकि धरती को मॉं की संज्ञा दी है। मॉं सदैव क्षमा से भरी होती है। पुत्र कितनी भी, कैसी भी दुष्टता करता है लेकिन मॉं सदैव क्षमा करती है। जैन दर्शन में क्षमा धर्म को ग्रहण करके अनेक मुनियों ने मोक्ष प्राप्त किया है। जैसे भगवान बाहुबली स्वामी, पाण्डव कुमार महामुनि, गजकुमार मुनि एवं गांधी जी जैसे महात्मा ने भी अपने प्राण लेने वाले को भी क्षमा प्रदान की।
सब कुछ अपराध सहन करके, भावों को पूर्ण क्षमा करिये।
यह उत्तम क्षमा जगन्माता, इसकी नितप्रति अर्चा करिये।।

उत्तम मार्दव धर्म

उत्तम मार्दव-गुन मन माना, मान करन को कौन ठिकाना।
वस्यो निगोद माहितैं आया, दमरी रूकन भाग बिकाया।।

मान-कषाय महाविष है दुर्गति का यह कारण है। जीवन में जिस व्यक्ति ने मान-कषाय मन में धारण की उसका सदैव नाश हुआ है। रावण महामानी व्यक्ति था। आज उसके फलस्वरूप कोई भी पुत्र-पुत्री का नाम उसके नाम पर रखना नहीं चाहता है। आचार्यों ने मान को आठ प्रकार का बताया है जो निम्न प्रकार हैं-जाति, कुल, बल, ऐश्वर्य, रूप, तप, विद्या और धन यह समय के साथ नष्ट हो जाते हैं। इसलिये कभी भी मान नहीं करना चाहिए। जिनके वशीभूत होकर प्राणी दुर्गति में चला जाता है एवं तिर्यंच पर्याय को प्राप्त करता है। इस धर्म से हमें यह शिक्षा मिलती है कि जीवन में सदैव छोटे बनकर रहने में व्यक्ति उच्च स्थान को एवं समाज में प्रतिष्ठा को प्राप्त होता है। सदैव समाज में ऐसे व्यक्ति का लोग अनुशरण करते हैं।
मृदुता का भाव कहा मार्दव, यह मान शत्रु मर्दनकारी।
यह दर्शन ज्ञान चरित्र तथा, उपचार विनय से सुखकारी।।

उत्तम आर्जव धर्म

उत्तम आर्जव-रीति बखानी, रंचक दगा बहुत दुःखदानी।
मनमें होय सो वचन उचरिये, वचन होय सो तनसौं करिये।।

मन में सरलता का भाव आर्जव धर्म को प्रगट करता है। मायाचारी से भरा हुआ व्यक्ति दीर्घ कालीन प्रसिद्धि को नहीं प्राप्त कर सकता है। मायाचारी करने वाला व्यक्ति सदैव नरक एवं तिर्यंचगति का द्वार अपने लिए खोलता है। मन-वचन-काय की एक रूपता ही उत्तम आर्जव धर्म है। सरल व्यक्ति से हर कोई जुड़ना चाहता है एवं मायाचारी से दूर रहना चाहता है। उत्तम गति का प्राप्त करने के लिए सरलता अत्यंत आवश्यक है, यह मोक्ष का द्वार खोलती है। खुद ठग जाना अच्छा है। दूसरे को ठगने की अपेक्षा।
ऋजु भाव कहा आर्जव उत्तम, मन वच ओ काय सरल रखना।
इन कुटिल किये माया होती, तिर्यंचगति के दुःख भरना।।

उत्तम सत्य धर्म

उत्तम सत्य-वरत पा लीजे, पर-विश्वासघात नहिं कीजे।
साँचे झूठे मानुष देखा, आपन पूत स्वपास न पेखो।।

उत्तम सत्य वचन बोलने वाले व्यक्ति को वाक्य सिद्धि हो जाती है। सत्य बोलने वाला व्यक्ति सदैव ही निर्भय एवं सुखमय जीवन व्यतीत करता है। एक झूठ व्यक्ति को अनेक झूठ बोलने पर विवस कर देता है। आचार्यों ने सत्य को परमधर्म माना है। सत्यवादी हरिशचंद की कथा जग विख्यात है। आज भारतीय मुद्रा के ऊपर सत्य-मेव-जयते अंकित रहता है। जबकि उस मुद्रा को प्राप्त करने के लिए लोगों को अनेक प्रकार के झूठ बोलने पड़ते हैं। लेकिन फिर भी अंत में सत्य की ही विजय होती है। संसार समुद्र से तिरने के लिए सत्य धर्म अत्यंत आवश्यक है।
सत् सम्यक् और प्रशस्त वचन, कहता है सत्यधर्म सुन्दर।
अस्ति को अस्ति रूप कहना, मिथ्या अपलाप रहित सुखकार।।

उत्तम शौच धर्म

उत्तम शौच सर्व जग जाना, लोभ पाप को बाप बखाना।
आशा-पास महा दुःखदानी, सुख पावैं सन्तोषी प्रानी।।

उत्तम शौच धर्म सुचिता के भाव को प्रगट करता है। शौच अर्थात् आत्म शुद्धि। जब तक आत्मा में शुद्धि के परिणाम नहीं होगे अर्थात् परिणामों में विशुद्धि नहीं होगी तब तक किसी भी प्रकार का धर्म प्रगट नहीं हो सकता है। शौच धर्म लोभ-कषाय के अभव में प्रगट होता है। आचार्यों ने लोभ को पाप का बाप कहा है। क्योंकि प्राणी लोभ के वशीभूत होकर के ही पापों को करता चला जाता है एवं अपने आपको दुर्गति का पात्र बना लेता है। आशाओं से परिपूर्ण व्यक्ति सदैव ही लोभवृत्ति को प्राप्त होता है। संतोषी प्राणी सदैव पुण्य का बंध करता है एवं पापों से दूर रहता है। यही उत्तम शौच धर्म है।
शुचि का जो भाव शौच वो ही, मन से सब लोभ दूर करना।
निर्लोभ भावना से नित ही, सब जग को स्वप्न सदृश गिनना।।

उत्तम संयम धर्म

उत्तम संयम गहु मन मेरे, भव-भव के भाजैं अघ तेरे।
सुरग-नरक-पशुगति में नाहीं, आलस-हरन-करन सुख ठाहीं।।

संयमी व्यक्ति सदा ही सुखी रहता है। संयम रत्न दुर्लभता से प्राप्त होता है। संयम को रत्न की संज्ञा आचार्यों ने दी है। मनुष्य भव पा करके व्यक्ति को सदैव संसार भोगों में रत न रहते हुए संयम की साधना करते हुए अपने गृहस्थ जीवन को पालना चाहिए। संयम बिना जीवन एक पशु के समान है। हर व्यक्ति को जिसने इस संसार में मनुष्य जीवन प्राप्त किया है। उसको सदैव संयम को अपने जीवन में स्थान देना चाहिए। पॉंच स्थावर और त्रस ऐसे षटकाय जीवों की रक्षा करना प्राणी संयम है। पॉंचों इंद्रियों तथा मन को वश में करना इंद्रिय संयम है। संयमी व्यक्ति अपने जीवन में अपना एवं दूसरों का सदैव कल्याण करता है।
व्रत धारण समिति का पालन, क्रोधादि कषय विनिग्रह है।
मन वचन तन की चेष्टा त्यागे, इन्द्रिय जप संयम पॉंच कहे।।

उत्तम तप धर्म

उत्तम तप सब माहिं बखाना, करम-शैलको वज्र समाना।
वस्यो अनादि-निगोद-मँझारा, भू-विकलत्रय-पशु-तन धारा।।

मनुष्य भव पाकर के तप अवश्य करना चाहिए। तप मनुष्य जीवन का श्रृंगार है। ऐसे तपरूपी धर्म की सदैव ही जय होती है। तपस्वी व्यक्ति सदैव ही उत्तम गति का प्राप्त होता है। तप वह है जहॉं परिग्रह का त्याग किया जाता है। तप वह है जहॉं काम को नष्ट कर दिया जाता है। तप वह है जहॉं नग्न मुद्रा दिखाई देती है और तप वह है जहॉं पर्वतों की कंदराओं में निवास किया जाता है। अनेक परिषहों को सहन करके तपस्या की जाती है। तप के बाह्य और अभ्यंतर से बारह भेद आचार्यों ने बतलाये हैं। अनशन, अवमौदर्य, व्रतपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्त शयनासन, कायक्लेश ये छः प्रकार के तप वाह्य हैं। अंतरंग तप के छः भेद हैं-प्राश्यचित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग एवं ध्यान।
उत्तम तप द्वादश विध माना, बाह्याभ्यंतर के भेदों से।
अनशन ऊनोदर वृत्तपरीसंख्या, रस त्याग प्रभेदों से।।

उत्तम त्याग धर्म

उत्तम त्याग कह्यो जग सारा, औषधि शास्त्र अभय आहारा।
निहचौ राग-द्वेष निरवारै, ज्ञाता दोनों दान संभारै।।

त्याग से सुख की प्राप्ती होती है। त्यागी व्यक्ति सदैव ही चिंता मुक्त रहता है। उसे किसी भी प्रकार की चिंता मन में नहीं रहती है। त्याग धर्म का अंग है। तप गुण से युक्त अत्यंत पवित्र पात्र के लिए अपनी शक्ति के अनुसार भक्तिपूर्वक त्याग देना चाहिए। क्योंकि वह पात्र अन्य गति के लिए पाथेय के समान है। ऐसा समझो। दान चार प्रकार शास्त्रों में बतलाया है। अभय दान, शास्त्र दान, औषधि दान एवं आहार दान। सभी दान श्रेष्ठ हैं लेकिन उत्तम पात्र को दिया हुआ आहार दान श्रेष्ठ है चूंकि वह श्रेष्ठ गति का बंध कराता है। नग्न दिगम्बर साधु को उत्तम पात्र की संज्ञा दी है, जो सदैव ज्ञान ध्यान और साधना में रत रहते हैं। उनको दिया हुआ आहार दान श्रेष्ठ गति का बंध कराता है। हर व्यक्ति को सदैव यथा शक्ति दान करना चाहिए।
उत्तम त्याग कहा जग में, जो त्यागे विषय कषायों को।
शुभ दान चार विध के देवें, उत्तम आदि त्रय पात्रों को।।

उत्तम आकिंचन्य धर्म

उत्तम आकिंचन गुण जानो, परिग्रह चिंता दुःख ही मानो।
फाँस तनकसी तन में सालै, चाह लंगोटी की दुःख भालै।।
आकिंचन्य का अर्थ है किसी भी प्रकार के परिग्रह हो नहीं रखना। नग्न दिगम्बर साधु को आकिंचन्य कहा जाता है। उत्तम आकिंचन्य धर्म हमें सिखाता है न मैं किसी का न कोई मेरा धर्म आकिंचन्य नाम इसी का। आकिंचन्य धर्म की भावना करो कि आत्मा शरीर से भिन्न है, ज्ञानमयी है, उपमा रहित है, वर्ण रहित है, सुख सम्पन्न है, परम उत्कृष्ट है, अतीन्द्रिय है और भय रहित है। सर्व परिग्रह से निर्वृत होना आकिंचन्य धर्म है। शुभ ध्यान करने की शक्ति होना आकिंचन्य वृत है। जहॉं तृण मात्र भी परिग्रह नहीं होता वह नियय से आकिंचन्य व्रत है। इस आकिंचन्य धर्म के प्रभाव से अपने स्वभाव को प्राप्त करके तीर्थंकरों ने शिवनगर को प्राप्त कर लिया है।
नहिं किंचित् भी तेरा जग में, यह ही आकिंचन भाव कहा।
बस एक अकेला आत्मा ही, यह गुण अनंत का पुंज अहा।।

उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म

उत्तम ब्रह्मचर्य मन आनौ, माता बहिन सुता पहिचानौ।
सहै बान-वरषा बहु सूरे, टिकै न नैन-बान लखि कूरे।।
आत्मा ही ब्रह्म है उस ब्रह्मस्वरूप आत्मा में चर्या करना ब्रह्मचर्य है अथवा गुरू के संघ में रहना भी ब्रह्मचर्य है। जिस प्रकार से 1 अंक को रखे बिना असंख्य बिन्दु भी रखते जाईये किन्तु कुछ भी संख्या नहीं बनती है। ठीक उसी प्रकार से बिना ब्रह्मचर्य के कोई भी व्रत, तप का फल प्राप्त नहीं होता है। दुर्धर और उत्कृष्ट ब्रह्मचर्य व्रत को धारण करना चाहिए और विषयों की आशा का त्याग कर देना चाहिए। यह प्राणी स्त्री सुख में रत होकर मनरूपी हाथी से मदोन्मत्त हो रहा है, इसलिये हे भव्यों! स्थिर होकर उस ब्रह्मचर्य व्रत की रक्षा करो। सीता के शील के महात्म से अग्नि भी जल का सरोवर बन गई। सुदर्शन सेठ को सूली भी शील व्रत के प्रभाव से सिंहासन बन गई।
यह ब्रह्मस्वरूप कही आत्मा, इसमें चर्या ब्रह्मचर्य कहा।
गुरूकुल में वास रहे नित ही, वह भी है ब्रह्मचर्य दुखहा।।

दशधर्म सार

क्षमा जिसकी जड़ है, मृदुता स्कंध हैं, आर्जव शाखायें है, उसको सिंचित करने वाला शौचधर्म जल है, सत्यधर्म पत्ते हैं, संयम, तप और त्याग रूप पुष्प खिल रहे हैं, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य धर्मरूप सुन्दर मंजरियॉं निकल आई हैं। ऐसा यह धर्मरूप कल्पवृक्ष स्वर्ग और मोक्षरूप फल को देता है। हे धर्मकल्पतरों! मैं तुम्हारी पुनः पुनः उपासना करके तुमसे ज्ञानवती लक्ष्मी से युक्त मुक्तिरूप एक सर्वोत्कृष्ट फल की ही याचना करता हूॅं।
अंत में आपस में एक-दूसरे से वर्ष भर में हुई गल्तियों के लिए मन-वचन-काय से क्षमा प्रार्थना करके अंतर मन के कालुष एवं वैर भावों का त्याग करें। यही दशलक्षण पर्व का सार है।

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