पटना 14 सितम्बर 2024
आलेख : प्रतिष्ठाचार्य विजय जैन,भगवान महावीर जन्मभूमि कुण्डलपुर,महामंत्री तीर्थकर ऋषभदेव जैन
अनादिकाल से जैन आगमानुसार दशलक्षण धर्म का समापन क्षमावणी पर्व के द्वारा किया जाता है. जिसमें मुख्यरूप से आपस में एक-दूसरे से वर्ष भर में हुई भूलों के लिए परस्पर हाथ जोडकर मन-वचन-काय से क्षमायाचना की जाती है। एकमात्र हम जैन आगम में ही यह देखते हैं कि एक दूसरे से व्यक्ति आपस में हुई कलुषता के लिए क्षमावाणी पर्व मनाता है। दशलक्षण धर्म का प्रारंभ क्षमा से प्रारंभ होकर क्षमा पर ही समापन होता है। जैनाचार्यों के अनुसार कषाय मनुष्य को अनेक भवों तक नरक और तिर्यंच गति में भ्रमण करवाता है। यदि आपस में चैर-भाव हो जाये, तो उसे 6 माह के अंदर ही हाथ जोड़कर समाप्त कर लीजिए। अन्यथा कोड़ाकोडी सागर वर्ष तक वह कषाय साथ-साथ चलती है। भगवान पार्श्वनाथ और कमठ का जीव दश भव तक चलता हुआ वैर इस बात का उदाहरण है।
बंधुओं वैर से वैर कभी भी समाप्त नहीं होता है, जिस प्रकार से अग्नि से अग्नि नहीं समाप्त होती है। कोधरूपी अग्नि को बुझाने के लिए क्षमारूपी जल अवश्य डालना पड़ता है। इसी प्रकार से हम इस दुर्लभ मनुष्य भव में किसी भी प्रकार से वैर को स्थान न देकर हमेशा क्षमा को अपनाए। भारतवर्ष महात्मा और संतों का देश रहा है। हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भी अपने स्वयं के प्राणघात करने वाले को भी क्षमा प्रदान की। यह साक्षात् क्षमा का एक उदाहरण है। हम देखते हैं कि बच्चा कितनी भी गलती करे लेकिन अंत में मां उसे क्षमा कर देती है। यह सबसे उत्तम उदाहरण है।
खम्मामि सव्वजीवाणं, सब्बे जीवा खमंतु मे।
मित्ती मे सव्वभूदेसु, वैरं मज्झं ण केणवि।। 3।1
अर्थात् सब जीवों से मैं क्षमा याचना करता हूं। सब जीव मुझे क्षमा करें। यह हमारे जैन साधु प्रतिदिन दिन में 3 बार सामायिक करते हैं। उस सामायिक पाठ में यह बोलते हैं। जैन श्रावक प्रतिदिन मंदिर में जाकर आलोचना पाठ के माध्यम से अपने द्वारा दिनभर में की गई मूलों के लिए जिनेन्द्र प्रभु के आगे क्षमा याचना करता है। जैन शास्त्रों में कई उदाहरण हमें देखने को मिलते हैं, जैसे पाण्डव मुनियों के ऊपर अग्नि जला दी, लेकिन उन्होंने उसको समता परिणामों से स्वीकार किया, न कि कोध करके अपने कोध को प्रगट किया। इसी प्रकार से अनेक मुनियों और संतों के ऊपर उपसर्ग आते हैं, लेकिन यह उस उपसर्ग को सहन करते हुए सभी को क्षमा कर देते हैं।
‘क्षमा वीरस्य भूषण’ के बारे में आचार्यों ने ग्रंथों में कहा कि क्षमा वीरों का आभूषण है। इसे कायर व्यक्ति नहीं धारण कर सकता है। क्योंकि क्षमा भी वीर पुरुष के पास होती है। कायर व्यक्ति क्षमा जैसे आभूषण को न ग्रहण कर सकता है न दे सकता है। क्षमा आत्मा का गुण है। यह आत्मा का स्वभाव होता है। क्योंकि हम देखते हैं कि किसी व्यक्ति को यदि कोध आ जाये, तो वह कितनी भी देर कोध करे, लेकिन अंततोगत्वा उसे अपने स्वभाव में आना पड़ता है और इसी की अपेक्षा यदि हम देखें कि कोई व्यक्ति हंसता है, कितना हंस सकता है। एक समय आता है कि उसे रुककर अपने वास्तविक स्वरूप में आना पड़ता है। क्योंकि शांत गुण क्षमा का है और क्षमा आत्मा का गुण है। इसलिए आत्मा का वास्तविक स्वरूप क्षमावाणी पर्व मनाकर सम्पन्न किया जाता है। जैन साध्वी आर्यिका श्री चंदनामती माताजी द्वारा रचित भजन के माध्यम से कहती है-
क्षमा गुण को मन में धर लो, क्षमा को वाणी में कर लो।
शत्रु-मित्र सबमें समता का, भाव हृदय भर लो।। क्षमा गुण को मन में धर लो। । टेक. ।। मैत्री का हो भाव सभी, प्राणी के प्रति मेरा।
गुणी जनों को देख हृदय, आल्हादित हो मेरा।। वही आल्हाद प्रगट कर लो, कोध वैर भावों को तजकर, मन पावन कर लो।
क्षमा गुण को मन में घर लो।।
सारंगी सिंहशावं स्पृशति सुतधिया नंदिनी व्याघ्र पोतं। मार्जारी हंसबालं प्रणयपरवशा केकिकांता भुजंगीम् ।। वैराण्याजन्मजातान्यपि गलितमदा जंतवोन्ये त्यजंति।
श्रित्वा साम्यैकरूढं प्रशमितकलुषं योगिनं क्षीणमोहम् ।।
हरिणी सिंह के बच्चे को पुत्र की बुद्धि से स्पर्श करती है, गाय व्याघ्र के बच्चे को दूध पिलाती है, बिल्ली हंसों के बच्चों को प्रीति से लालन करती है एवं मयूरी सर्पों को प्यार करने लगती है। इस प्रकार से जन्मजात भी वैर को कूर जंतुगण छोड़ देते हैं। कब ? जबकि वे पापों को शांत करने वाले मोहरहित और समताभाव में परिणत ऐसे योगियों का आश्रय पा लेते हैं अर्थात् ऐसे
महामुनियों के प्रभाव से हिंसक पशु अपनी द्वेष भावना छोड़कर आपस में प्रीति करने लगते है। ऐसी शांत भावना का अभ्यास इस क्षमा के अवलंबन से ही होता है।
वर्तमान में जैन समाज की सर्वोच्च साध्वी गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी हमारे बीच में विद्यमान हैं, जो कि दिगम्बर जैन समाज में वर्तमान समय में लगभग 1500 साधु साध्वियां विराजमान हैं, उन सबमें सबसे प्राचीन दीक्षित हैं। 66 वर्ष संयम की साध् ाना के व्यतीत हो चुके हैं। उनका यह कहना है कि क्षमा धर्म को धारण करके हम भव से पार होकर मुक्ति को प्राप्त हो सकते हैं। क्षमा धारण करने वाला व्यक्ति इस भव में भी और पर भव में भी सुख को प्राप्त करता है। कोधी व्यक्ति के पास कोई भी व्यक्ति बैठना नहीं चाहता है, उस व्यक्ति से बात करना नहीं चाहता है। उससे कोई संबंध नहीं करना चाहता है और परस्पर व्यवहार में भी आपस में उसकी निंदा करते हैं। जो व्यक्ति सौम्य स्वभावी होता है, सभी उससे जुड़ना चाहते हैं एवं उसे ही अपने पास बैठना चाहते हैं। कोधी व्यक्ति को जब कोच आता है, तब आंखें लाल हो जाती है, होंठ कपकपाने लग जाते हैं एवं वह बोलना कुछ चाहता है, शब्द मुख से कुछ और निकलता है। एक वैज्ञानिक ने कोच व्यक्ति का खून इंजेक्शन में लेकर एक चूहे के लगा दिया, तो यह चूहा कुछ समय बाद तड़पकर मृत्यु को प्राप्त हो गया। इसलिए कोध हर प्रकार से बुरा होता है।
आज वर्तमान में सामाजिक जो भी समस्याएं हैं, एक देश का दूसरे देश से वैर विरोध है, वह सभी हल अहिंसा और क्षमा के द्वारा ढूंढे जा सकते हैं। यह क्षमावाणी पर्व हमें यही संदेश देता है।